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दूरबीन से देखो भाई,
जो न आंख से पड़े दिखाई!
आसमान के तारे लगते
जैसे जुगनू घास में,
नहीं नजर आता है लेकिन
जो घटता है पास में!

नेता कहे किसान से, तू नहीं जाने मोय
ऱॅली का दिन आन दे, फिर रौंदूंगा तोय
नीचे गाड़ी के आयेगा, पिल्ला और किसान
पहला मन को दुख दे, दूजा तो शैतान

खबरदार,
ट्रॅक्टर कुछ ज्यादा ही बिक रहे हैं
मगर ये आलीशान गाडियां नहीं
क्या अर्थव्यवस्था के लिये खतरे की
घंटी तो नहीं

जब तुम कर दी गयी निर्वसन
चुप थी सब आचार्य मंडली
आज तुम्हे मिलता निष्कासन
सभा नयी और नयी है टोली
पर कोई आश्चर्य नहीं है
आज भी चुप आचार्य मंडली

मैया मोरी, मैं नहीं चंदा चुरायो
भोर भयो कागजन के पाछे, दफ्तरन मोही पठायो
चार पहर पूरा करके घोटाला, सांझ रजिस्ट्री करायो
मैया मोरी, मैं नहीं चंदा चुरायो
मैं सेवक शहरन को छोटो, पैसो किस विध पायो
आप वाप सब बैर पडे हैं, कागज प्रेस में दिखायो

ज़रा सी खांसी जो होती है तो दिल सोचता है
कहीं ये वो तो नहीं, कहीं ये वो तो नहीं
ज़रा सी खांसी होती है …
घुस के सीने में कोई जगह बना लेता है
हर दवाई को बता जैसे धता देता है
है उसी की ये सदा, है उसी की ये अदा
कहीं ये वो तो नहीं …

कहां तो तय था पंद्रह लाख हरेक घर के लिये
कहां दवा भी मयस्सर नहीं शहर के लिये
यहां अस्पतालो के साये में मौत बैठी है
चलो यहाँ से कहीं दूसरे शहर के लिये

मै और मेरे तोतै, अक्सर ये बातें करते हैं ….
अगर करोना न होता तो ऐसा होता, जुमला चल जाता तो वैसा होता
अगर गोली न चलती तो ऐसा होता, दंगे हो जाते तो वैसा होता ….
नतीजे फिर ऐसे नहीं, वैसे होते
विरोधी हमारी जीत पे हैरां होते, हम उनकी हालत पे कितना हँसते
मैं और मेरे तोते, अक्सर ये बातें करते थे
अबकी बार दो सौ पार ……..,मगर,
ये कहाँSS आ गये हम, यूँ ही साथ साथ चलते
ये सारे ही नतीजे, चले हाSSथ से फिसलते

हमने जिसका हनन किया, पहले उसको नमन किया
अर्धसत्य का गरल बनाकर, उसपर डर की डाली चादर
हर भाषण में, हर प्रचार में हमने विष का वमन किया
हर अच्छे मौके पर रखी हमने पक्की निगरानी
श्रेय बटोरा, आंच न आये, इसका पूरा जतन किया

गलतफहमी की ऐसी हवा बह चली
कि चार जानें हमें अलविदा कह चलीं
पट्टी बेबसी की आंखों पे ऐसी बंधी
किसी भीड़ में एहतियात की कमी ना खली

मेरी जींस से झांकते अंगों को घूरती हुई
उनकी फटी सी आंखें
और जो मुझपर फेंकना चाहते थे मन ही मन
वह उनकी अक्ल पर पडे हुए पत्थर
तिसपर सत्ता का चढ़ा हुआ अहंकार
जिसने झांका, मेरे मन के नहीं
ज

पंच परमेश्वर कहानी में खाला ने अलगु चौधरी से पूछा था “बेटा, बिगाड़ के डर से क्या ईमान की बात नहीं कहोगे?” उसे क्या पता था कि अलगु चौधरी, जुम्मन के दोस्तों की ही एक कमेटी बना देंगे जो यह तय करेगी के खाला की फसल को धन्नासेठों के हाथ बेचने का अधिकार जुम्मन का ही है ना!

क्या कहा? तुमपर हुआ बलात्कार! जरूर तुम्ही ने कुछ किया होगा
अपनी किसी अशालीनता से ‘बेचारे’ मर्द को उकसाया होगा
कपड़े जरूर तंग थे तुम्हारे, संस्कारों से दूर विदेशियत के मारे
अच्छा ss तुमने पहन रखी थी साड़ी?
जरूर होगी नाभिदर्शना, और पीठ उघाड़ने वाली

कंपनी बहादुर कुछ अधीर से हो उठे थे. ग्लोबलायज़ेशन का जमाना था. धन अब नहीं बटोरें तो कब बटोरें? सारी दुनिया को देखो – हर कोई बहती डिजिटल गंगा में हाथ धो रहा है. अभूतपूर्व पैमाने पर धन संचित कर रहा है. एक हम हैं कि धीमी गति से चल रहे हैं – यह सारा चक्कर इस लोकतंत्र का है. धन अर्जन करने की राह में बस रोड़े ही रोड़े अटकाता है. वह सदाबहार एक्सपर्ट सही कह रहा था जरूरत से ज्यादा हो गया है लोकतंत्र हमारे यहां – वाकई टूss मच. तिसपर यह महामारी – अब ऐसे समय में पैसे बनाने हों तो मैदान साफ चाहिये. तभी तो होगी “इज़ आफ डूइंग बिझनेस”.

अब वह दिन नहीं रहे जब युधिष्ठिर का रथ जमीन से दो अंगुल ऊपर चला करता था. कलियुग में वह न सिर्फ वह धरती से लगकर चलता है बल्कि कीचड में दो अंगुल धंसकर चलता है. उनके रथ को अब कीचड से खासा लगाव है, या यों कहें कि धर्मराज का रथ कीचड में ही खिलता है.