अब वह दिन नहीं रहे जब युधिष्ठिर का रथ जमीन से दो अंगुल ऊपर चला करता था. कलियुग में वह न सिर्फ वह धरती से लगकर चलता है बल्कि कीचड में दो अंगुल धंसकर चलता है. उनके रथ को अब कीचड से खासा लगाव है, या यों कहें कि धर्मराज का रथ कीचड में ही खिलता है.
पर युधिष्ठिर को इससे कोई खास फर्क नहीं पडता. आजकल उनका ध्यान रिटायरमेंट के बाद की संभावनाओं पर ज्यादा रहता है. सशरीर स्वर्गारोहण तो हो नहीं पाया, पर इंद्रसभा के लिये उनका नामांकन तो हो ही सकता था. पर यह तो धृतराष्ट्र के मूड पर निर्भर करता अब. युधिष्ठिर उन्हें प्रसन्न रखने का निरंतर प्रयास करते रहते थे – उनके न्यायदान में वह आजकल बार बार झलकता था. न सिर्फ सभासद, आम नागरिक भी इसकी चर्चा करने लगे थे.
एक समय था जब युधिष्ठिर के न्याय की प्रशंसा हर तरफ होती थी. उन्हें याद है जब पहली बार उन्होंने एक ही अपराध के लिये चार अलग अलग सजा सुनाकर सबको आश्चर्य में डाल दिया था. मामला किसान के खेत से की गयी चोरी का था – पहला अपराधी एक निर्धन मजदूर था, दूसरा एक व्यापारी, तीसरा सैनिक और चौथा एक पुजारी.
युधिष्ठिर ने मजदूर को सामान्य सी सज़ा दी, व्यापारी को कुछ दिनों का कारावास, सैनिक को लंबा कारावास तो पुजारी को कठोर कारावास. अचंभित गुरुजनों और प्रजा को उन्होंने कारण बतलाया. निर्धन व्यक्ति ने भूख की चोट के कारण चोरी की अतः उसके प्रति सहानुभूति से विचार किया जा सकता है. व्यापारी की जिम्मेदारी है कि किसान की उपज को सही दामों पर खरीदे – पर उसने उलटे उपज पर हाथ साफ कर दिया. अतः उसे अधिक सजा होनी चाहिये. सैनिक का काम जनता के जान माल की रक्षा करना है सो उसका अपराध और भी गंभीर है. प्रतिष्ठित पुजारी ने तो समाज मे आदर्श स्थापित करने चाहिये, उसके बजाय वह अन्नदाता के खेत में ही सेंध लगा बैठा. उसे तो कठोरतम सज़ा मिलनी चाहिए.
धर्मराज के न्याय की हर तरफ प्रशंसा हुई. पर “ते ही नो दिवसाः गताः” (वह दिन अब नहीं रहे). अब कलियुग था और युधिष्ठिर ने खुद को उसके अनुरूप ढाल लिया था.
आज मामला उनके सामने था, व्यक्ति-स्वतंत्रता का. एक नही पांच पांच याचिकाएं – शीघ्र सुनवाई के लिए. सबपर राजद्रोह के आरोप थे. पर सुनवाई थी कि हो ही नहीं रही थी.
पहला वयोवृद्ध कवि था. उसपर कविताएँ लिखने का आरोप था – कविताएँ जिनसे लोगों के मन मे शासकीय व्यवस्था के प्रति विपरीत भावनाएं पैदा हों. वह कई महीनों से कारावास में था. इस उम्र में राजद्रोह? युधिष्ठिर को हंसी आ गयी, पर कानून कानून होता है.
अगला भी एक वयोवृद्ध कार्यकर्ता था. उसकी भी याचिका सुनवाई की ही थी पर उससे भी जरूरी थी एक नली की मांग, पानी पीने के लिये. क्योंकि उसके जराजर्जर हाथ प्याला उठाते थरथराते थे.
और यह वयस्क महिला? युधिष्ठिर को याद आया कि यह तो विख्यात गुरुकुल में विधि और न्याय पढाती थीं. इन्हें कैसे राजद्रोह का शौक चर्राया? इन्हें भी कई महीने हो गये हैं बिना सुनवाई के! युधिष्ठिर चिंता-मग्न हुए.
और यह बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका? वह भी पत्रकारों के संगठन द्वारा! सूदूर दक्षिण के प्रदेश से? कागज देखकर युधिष्ठिर की समझ में आया कि वह पत्रकार पांचाल देश मे हुई किसी बालिका-दहन की घटना पर समाचार प्राप्त करने आया था. युधिष्ठिर झल्लाए. क्या जरूरत थी इतनी दूर आने की? पांचाल प्रशासन की विज्ञप्ति काफी नहीं थी क्या? जरूर कोई षड्यंत्र होगा.
अगली याचिका देखकर युधिष्ठिर थोडा सकपकाए. यह भी एक बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका थी – चाटुकार चॅनल के मालिक की. पर वह क्यों बंदी बना बैठा है राजद्रोह में, जब वह सत्ता के साथ है?
पेशकार ने विनम्रता से समझाया – यह राजद्रोह नहीं, एक आपराधिक मामला है दंड संहिता के तहत. और बंदी उसे हस्तिनापुर ने नहीं एक क्षत्रप ने बनाया है. हस्तिनापुर का तो उसपर वरदहस्त है! युधिष्ठिर समझदार थे. इतना इशारा उन्हें काफी था. पेशकार को सूचनाएं सीधी उपर से मिलती थीं. वह गंभीर हुए- “यह तो सीधा सीधा हस्तिनापुर को ललकारने का मामला है. दंड संहिता अपनी जगह है. फिर भी इतने दिन बंदी रखना कहां का न्याय है?”
युधिष्ठिर ने अपना फैसला सुनाया. कवि की याचिका को लंबित रखा जाये. सामाजिक कार्यकर्ता की याचिका राजवैद्य के पास जांच के लिये भेज दी जाए, अध्यापिका के मामले मे निर्णय सुरक्षित रहे और पत्रकार पांचाल जाएं.
जहां तक चाटुकार चॅनल के रसूखदार मालिक की याचिका का प्रश्न है उसकी सुनवाई तुरंत हो और ऊसमें कोई कोताही न हो. आखिरकार व्यक्ति स्वतंत्रता का मामला है, बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका है वह भी हस्तिनापुर के सबसे महंगे वकील द्वारा. यह मामला अविलंब सुना जाएगा.
सभा स्तब्ध, गुरुजन अवाक. दुर्योधन मुस्कराया. दुःशासन ने अट्टहास किया. अंगराज ने तालियाँ बजायी. कैसे न बजाते? हाल हाल मे ही तो हस्तिनापुर की कृपा से वह अंगराज बन पाये थे.
पांचाली को लगा जैसे धर्मराज उसे फिर एक बार दांव पर लगा बैठे हैं. उसने साहस बटोरकर पूछ ही लिया “यह कैसा न्याय है आर्य?”
युधिष्ठिर ने बडी शांति से उत्तर दिया “हे गुरुजनों सभासदों, मुझे पता है कि मेरे न्याय से आप सभी अचंभित होंगे. तो आप उसका कारण समझिए.
जहां तक कवि का सवाल है, उसके कविता लेखन की स्वतंत्रता पर अभी तक कोई आंच नही आई है. पर गंभीर मसला यह है कि उसने व्यवस्था को चुनौती दी है. वैसे भी वह इतने दिनो से बंदीवास के अभ्यस्त हैं तो थोडे और दिनों से कोई खास अंतर नहीं पडेगा.
जराजर्जर सामाजिक कार्यकर्ता को वानप्रस्थ की इस अवस्था में लोगों के प्रश्न उठाने की कोई आवश्यकता नहीं थी. पहली नजर में उसने कानून ना भी तोडा हो पर व्यवस्था को तो चुनौती दी ही है. तो व्यवस्था भी नियमों से चलेगी. राजवैद्य की रिपोर्ट आने दें.
विदुषी अध्यापिका को भी समझना चाहिये की कानून और व्यवस्था दोनों का अपना अपना महत्व है, और आज के युग मे व्यवस्था ज्यादा महत्त्वपूर्ण है क्योंकि महाशक्ति होकर भी कुरू पांचाल देश को हुणों, यवनों और वनवासियों से खतरा है. ऐसे में व्यवस्था प्रधान और कानून गौण है.
पत्रकार पर भी यह बात लागू होती है. सूदूर दक्षिण से पांचाल आकर नकारात्मक समाचार बटोरकर प्रदेश को अस्थिर करने की क्या आवश्यकता है? इतना बड़ा प्रदेश है – छोटी मोटी घटनाएं होती रहती हैं. क्या फांसी दोगे? और फिर हर बात पर हस्तिनापुर में याचिकाएँ दाखिल करने की आदत को हम रोकना चाहते हैं. पहले वह क्षत्रप के पास जाएं.
नहीं नहीं, हम हर क्षत्रप को सर पर नहीं चढा सकते. वह भी जब कोई क्षत्रप हमारे ही रसूखवाले भाट या चारण पर बुरी नजर डाले. बेचारे को चॅऩल चलाना है. चाटुकारिता के नये कीर्तिमान बनाने हैं. उसकी स्वतंत्रता को आप कैसे रोक सकते हैं? उसकी कोमल काया को कारावास में सोने का अभ्यास नहीं है. उसकी सुनवाई फौरन होनी चाहिये और रिहाई फौरन से पेशतर. पल भर के लिए मान भी लें कि उसने कानून तोड़ा हो फिर भी हमें ध्यान रखना चाहिए कि वह व्यवस्था का एक मजबूत स्तंभ है. पुराने भरतखंड में हो सकता है कि कानून सर्वोपरि हो पर नये भरतखंड मे कानून नही, व्यवस्था सर्वोपरि है.”
“साधु वत्स साधु” धृतराष्ट्र ने कहा. आज पहली बार उनके मन में किसी पांडुपुत्र के प्रति इतना स्नेह उमडा.
युधिष्ठिर अब काफी आश्वस्त महसूस कर रहे थे. इंद्र सभा मे अब उनकी सीट पक्की हो चुकी थी.
छवि सौजन्य: पिक्साबे