Satish Balram Agnihotri blog - In a Land of Dirt Roads

कंपनी बहादुर कुछ अधीर से हो उठे थे. ग्लोबलायज़ेशन का जमाना था. धन अब नहीं बटोरें तो कब बटोरें? सारी दुनिया को देखो – हर कोई बहती डिजिटल गंगा में हाथ धो रहा है. अभूतपूर्व पैमाने पर धन संचित  कर रहा है. एक हम हैं कि धीमी गति से चल रहे हैं – यह सारा चक्कर इस लोकतंत्र का है. धन अर्जन करने की राह में बस रोड़े ही रोड़े अटकाता है. वह सदाबहार एक्सपर्ट सही कह रहा था जरूरत से ज्यादा हो गया है लोकतंत्र हमारे यहां – वाकई टूss मच. तिसपर यह महामारी – अब ऐसे समय में पैसे बनाने हों तो मैदान साफ चाहिये. तभी तो होगी “इज़ आफ डूइंग बिझनेस”.

पर कहां है साफ मैदान? ऊसपर जनता डटी बैठी है. कहते हैं यह मैदान हमारा है. अंग्रेजों से लडकर हासिल किया है. संविधान ने हमें इसपर अधिकार दिया है. यह सबके विकास के लिये है – चंद लोगों के  नहीं. सबका यानी हम सबका – मजदूरों, किसानों, छात्रों औऱ बुद्धिजीवियों का.

सबका विकास! कंपनी बहादुर को हंसी आ गई. कितना सिरियसली ले रहे हैं ये भोले लोग इस जुमले को? पर मानना पडेगा सरकार बहादुर को. एक नहीं, दो दो बार चल गया यह जुमला. वैसे देखें तो उन्होने कंपनी बहादुर की मदद करने में अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोडी. मजदूरों को तो पहले झटके में ही घुटनों पर ला दिया.

कंपनी बहादुर को अभी भी याद है कि मजदूरों को किस करीने से झुकाया गया वह भी विकास के नाम पर. अब देश को विकास तो चाहिए. मजदूरों को उसकी राह का रोडा बताया गया. श्रम कानूनों में सुधार की जरूरतों को बताया गया. नियम बदलते रहे. भाट और चारणों ने तालियों की बौछार कर दी और आय टी सेल ने गालियों की – उन चंद दुस्साहसियों के खिलाफ जो आवाज उठाने की हिमाकत करने लगे. रही सही कसर महामारी मे पूरी हो गई जब मजदूरों को मैदान छोड़ भागना पडा. अच्छा स्वागत हुआ उनका! कहीं केमिकल से सफाई तो कहीं लाठियों से धुलाई. जब गांव पहुंचे तो आटे दाल का भाव मालूम हुआ. त्रिशंकू हो गए त्रिशंकू! गांव को उनका पैसा चाहिये था करोना नहीं, तो शहर को उनका हुनर चाहिये था वह भी सस्ते में, उनकी समस्याएं नहीं. उनकी भूख की किसे परवाह थी? औऱ सडकों पर? सडकों पर कौन उतरता? करोना ने सब की हवा टाइट कर रखी थी. एक जमींदार ने तो महामारी की आड में  काम के घंटे ही बढ़ा दिये किसी ने चूं तक नहीं की. सब ने कंधे  उचका दिए ”सानू की? सब चंगा सी” बस मजदूर पस्त हो गये.

अब बारी थी छात्रों की. बहुत सर पर चढ़ बैठे थे. इन्हें झुकाना जरूरी था. अरे सवाल करने की आदत क्लास में ठीक है पर क्या हर जगह सवाल पूछते फिरोगे? सरकार से भी. तुम्हारे पढ़ने के दिन हैं, पढ़ाई करो, संस्कारी बनो, कंपनी बहादुर या सरकार बहादुर की चाकरी करो – वैसे भी नये जमाने में इनके बीच का भेद मिट ही रहा है. पर नहीं – ये सुविधाएं मांगेंगे, आंदोलन करेंगे, लोन नहीं लेंगे वज़ीफा मांगेंगे. चुपचाप मरेंगे भी नहीं, सुसाइड नोट लिखकर बवाल करेंगे. इनकों ठोकना तो जरूरी ही था.

पर छात्रों के बारे मे एक फायदा है. अधिकतर बेचारे रोजगार की चाह में होते है. लंबी लड़ाई नही लड़ते. और स्कूल मे देख लो – एक दो उत्पाती बच्चों को सूंत दो संटी से, बाकी चूप. बस यही किया पर बडी खूबी से. आजकल आउटसोर्सिंग का जमाना है. पुलिस या अपने लोगों का थोड़े ही इस्तेमाल होता है इस काम के लिये? नान स्टेट एक्टर ही सही हैं इस काम के लिये. वह भी नक़ाबपोश हों तो कहना ही क्या.. बस जाकर कर आए डंडों से धुलाई – रपट में लिख दिया – संटी से सुताई. जो पिटे उन्हें ही गिरफ्तार कर लिया गया क्योंकि पीटनेवाले तो अंतर्धान हो चुके थे.

बलिहारी हो कुलपति जी के काव्य प्रतिभा की जिन्होंने लिखा

“चलो नयी शुरुआत करें

अब जो तुमको कूट दिया है, बैठो मिलकर बात करें”

औऱ सडकों पर?  सडकों पर कौन उतरता.. करोना ने सब की हवा टाइट कर रखी थी.

जब छात्र पिटे तब मजदूर चुप रहे. वह वैसे ही टूट चुके थे. बाकी सब ने कंधे  उचका दिए. “सानू की? सब चंगा सी.” बस अब छात्र भी पस्त.

बुद्धिजीवियों को रास्ते पर लाना उतना कठिन न था. आधे से जादे तो वैसे ही भोले होते हैं – उन्हें सब्जबाग दिखा दो तो वैसे ही उलझ जाते हैं – पुरानी परंपरा जो ठहरी. किंवदंती है कि पाणिनी के सामने जब बाघ आया  तो वह व्याघ्र शब्द की मीमांसा में ही लगे रहे “यः जिघ्रति सः व्याघ्रः” और वह उन्हें चट कर गया. कुछ और जो हैं वह थोडा घुड़क दो धमका दो तो चुप बैठ जाते हैं. थोडे और टेढ़े हों तो अपने ट्रोल हैं, इन्कम टॅक्स वाले हैं, ब्यूरो वालें तो हैं ही. पर इनमें से कुछ ढीठ सीधी उंगली से नहीं मानते. उनके लिये फिर वह अंडर ट्रायल वाला डंडा, माफ करें, फंडा ही सही है. और जानते हैं? दो चार बुढ़ऊ टाइप को कर दो ना अंदर, तो सबकी खुशफहमी दूर हो जाती है. बाकी लोग लाइन पर आ जाते हैं – अब  लिखो बेटा जेल में कविताएं, करो जेल से वकालत, लो जेल से क्लास – कहो तो लाइन हाजिर, मेरा मतलब है आन लाइन  हाजिर करवा दें?

औऱ हां हमें कचहरी की धौंस ना दो. वहाँ नये युग के स्वागत में हर कोई न्याय की नये तरीके से व्याख्या करने में जुटा है – हम तो फिजिकल ट्रायल से पहले ही अपने ट्रोलों और चॅनलों से डिजिटल ट्रायल करवा देते हैं हां! बस फिर वह हमारी बात समझ जाते हैं. उन्हें पता है कि सरकार  बहादुर  और कंपनी बहादुर दोनों बीमा कंपनी की तरह हैं – नौकरी के साथ भी नौकरी के बाद भी.

जब कलम के धनी काबू में लाए जा रहे थे तो छात्र भी चुप रहे और मजदूर भी. किसानों ने भी कंधे उचका दिए “सानू की? सब चंगा सी” दरअसल, कागज पर और जमीन पर खेती करने वालों मे कभी संवाद हो नहीं पाया था. पर अब पछताये होत क्या. अब कलम के धनी भी पस्त.

औऱ सडकों पर?  सडकों पर कौन उतरता.. करोना ने सब की हवा टाइट कर रखी थी. वैसे भी सड़क पर उतरना अपने बुद्धिजीवियों कि फितरत कभी  रही नहीं.

पर कंपनी बहादुर की अधीरता अपनी जगह बरकरार थी. माना कि सरकार बहादुर ने उनके लिये बहुत कुछ किया, पर मैदान अभी साफ कहां था किसान जो डटे बैठे थे. मुनाफा तो आनेवाले दिनों में वहीं से आना था य़ा तो उनकी फसल से या जरूरत पडी तो जमीन से. धनतंत्र के इस अश्वमेध का घोड़ा अब इस बाधा पर आकर ठहर गया था. इसे पार किये बिना बात बननेवाली नहीं थी.

अब कंपनी बहादुर की अधीरता सरकार बहादुर को अधीर ना करे यह कैसे हो सकता था. सरकार बहादुर हरकत में आये. किसानों को अब कंपनी बहादुर के हाथों सौंपना जरूरी था. इसकी व्यूहरचना बनी. पहले तो किसानों को बताया गया की सरकार बहादुर को उनकी बहुत फिक्र है और उनकी आय दुगुनी करने के उपाय किये जाएंगे. आय दोगुनी होना किसे अच्छा नही लगेगा  किसान खुश हुए. चक्कर यह था कि उन्हें शहरी प्रवक्ताओं के छल पेंच नही आते थे सो कही बात पर वह आम तौर पर विश्वास कर लेते थे. लेकिन जब उपायों की रूपरेखा सामने आने लगी तो उनका माथा ठनका. यह उपाय तो कहे के विपरीत दिशा में जाते दिख रहे थे. उन्होंने अपना प्रतिरोध जताया, विरोध प्रदर्शन किया पर सरकार बहादुर के चतुर सलाहकारो के यह पल्ले नहीं पडा. वैसे भी समाज के बाकी तबकों को साम, दाम, दंड, भेद, कपट, सम्मोहन और इंद्रजाल की सप्तपदी से वश कर चुकने के बाद, उनका साहस और आत्मविश्वास दोनों ही बढ़ चुके थे. उन्होंने किसानों के विरोध को अनदेखा कर पतली गली से अपने उपायों को कानूनी जामा पहना दिया और वातानुकूलित फिजा मे इतराने लगे. उदारीकरण के इस माहौल में कंपनी बहादुर के मुनाफे का अश्व अब कहीं नहीं रूकेगा. कंपनी बहादुर की जय हो!  

पर सारे कूटनीतिज्ञ यहीं गलती कर गये. अबतक जिन तबकों से वह निपटे थे वह परावलंबी तबके थे और उन्हीं की तरह शहरी भी. पर किसान अलग मिट्टी का बना हुआ और मिट्टी से जुड़ा हुआ होता है. उसमें  शहरी मक्कारी ना हो पर ग्रामीण चतुराई का अभाव नहीं होता. सबसे बडी बात यह है कि वह जिस सहजता से भरोसा कर लेता है उसी सहजता से भरोसा तोडनेवाले के खिलाफ उठ खड़ा भी हो जाता है. और यही हुआ. किसान उठ खड़े हुए और हस्तिनापुर की सरहद पर पहुँच गये. उन्हें नजर आया कि नाम तो उनका जपा गया पर काम कंपनी बहादुर का हो गया.

अब सरकार बहादुर पशोपेश मे है. कंपनी बहादुर को ना नहीं कहा जा सकता. बहुत कुछ दांव पर है. आंदोलनकारी किसानों के साथ समस्या यह है कि ना तो वह मजदूरों की तरह साधन विहीन हैं , न छात्रों की तरह रोजगारमुखी. न उनपर नक़ाबपोश गुंडे हमला कर पाएंगे न पुलिस लाठीचार्ज उन्हें डरा पाएगा. न उनको शहरी मध्यम वर्ग की तरह, सी बी आई या इडी का खौफ सताता है, न ही ठंढ उनके हौसले पस्त कर पाती है. उनपर हिंदू-मुस्लिम भी खेल भी लागू नहीं होता. चालाक इतने हैं कि हिंसक भी नही हो रहे. और तो और महा शक्तिशाली गोदी मिडिया भी ऊनपर बेअसर है. शहरी प्रदर्शनकारियों के खिलाफ काम आनेवाले सारे हथकंडे उनपर बेकार हैं. पर अब पीछे भी तो नहीं हट सकते. राजहठ आखिर राजहठ होता है. पर अब किसान भी अपनी जिद पर कायम हैं – उनके लिये यह अस्तित्व की लड़ाई है.

दोनों तरफ से अब तलवारें खिंच चुकी हैं एक तरफ आधुनिक हथकंडों से लैस सत्ता तो दुसरी तरफ जीवट और विश्वास के साथ एक असंतुलित लड़ाई जीतने का हौसला रखे किसान.

अंधे धृतराष्ट्र ने बड़े ही भोलेपन से पूछा

“धरना-क्षेत्रे आंदोलन क्षेत्रे, समवेता युयुत्सवः

मामकाः कृषकाः चैव किम् कुर्वत संजय?”

देखें उँट किस करवट बैठता है.

छवि सौजन्य: पिक्साबे

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