मेरी जींस से झांकते अंगों को घूरती हुई
उनकी फटी सी आंखें
और जो मुझपर फेंकना चाहते थे मन ही मन
वह उनकी अक्ल पर पडे हुए पत्थर
तिसपर सत्ता का चढ़ा हुआ अहंकार
जिसने झांका, मेरे मन के नहीं
जींस के अंदर
और नाप डाला मेरे सारे व्यक्तित्व को
अपनी कुत्सा के पैमाने पर
और चला डाले सारे विषाक्त बाण
मन की बात को जुबान पर लाकर
अब उठी है बात
विषधर की उपरति की
पर मेरे जींस से झांकते अंगों को पता है
कि चाहे जितना गरल निकाल ले
केंचुल छोड दे
विषधर रहेगा आखिर
विषधर ही !
छवि सौजन्य: पिक्साबे