तमिलनाडु से सांसद कनिमोझी हाल में दो बार सुर्खियों में रहीं. दोनों घटनाओं का संदर्भ एक ही था- हिंदी की अनावश्यक आक्रामकता! क्या थीं ये दो घटनाएं?
पहली तो थी एक सुरक्षाकर्मी की धृष्टता, जो एक सांसद की भारतीयता को हिंदी समझने की कसौटी पर तोलती है. दूसरी हैं सचिव स्तर के एक केंद्र सरकार के अधिकारी की हिंदी न जानने वाले सदस्यों को- जो शत प्रतिशत भारतीय नागरिक हैं- बैठक छोड़कर जाने की सलाह.
अगर ऐसी आक्रामकता कायम रही तो कोई 40-42 करोड़ (जी हां यह जनगणता के आंकड़े हैं ) देशवासियों की भारतीयता पर प्रश्नचिह्न लग सकता हैं!
इससे पहले की उत्साही ट्रोल्स अपने माउस पर सान चढ़ाने और नाखून पैने करने लगें, मैं यह बता दूं कि मैं हिंदी का समर्थ लेखक रहा हूं- धर्मयुग, रविवार, हिंदुस्तान, प्रभात खबर और लफ्ज़ में छप चुका हूं.
ऊपरवाले कि दया से भारती जी और कमलेश्वर से लेकर मृणाल पांडे, हरिवंश और ज्ञान चतुर्वेदी से मेरा व्यक्तिगत परिचय रहा हैं.
यह ज़रूर बता दूं कि मेरी मातृभाषा मराठी होते हुए भी मैंने खुद को ‘अहिंदी’ भाषी न माना, न कभी ऐसा प्रश्न उठा. पर शायद इसी पृष्ठभूमि ने मुझे हिंदीभाषियों की अनावश्यक आक्रामकता और कुछ भ्रांतियों के प्रति सजग भी रखा हैं.
मैं अपने वह अनुभव यहां साझा करूंगा ताकि हिंदी के पाठक इन पहलुओं के प्रति संवेदनशील बने.
प्रख्यात मराठी कवि कुसुमाग्रज की उस बात से शुरू करूंगा, जहां उन्होंने कहा था कि हिंदी अगर सखी बनकर आती है, तो मैं उसका खुले दिल से स्वागत करता हूं, पर अगर वह स्वामिनी बनकर आना चाहती हैं तो मैं स्वागत नहीं विरोध करूंगा.
कनिमोझी पहली व्यक्ति नहीं हैं, जो इस अनावश्यक आक्रामकता से दो-चार हुई हों. मैं भारतीय प्रशासनिक सेवा के मेरे कैडर के ओडिशा के एक अफसर को जानता हूं, जिन्होंने हिंदी का व्यवहार बंद कर दिया.
हालांकि वह इलाहबाद में पढ़े हैं, हिंदी अच्छी तरह जानते हैं और स्वयं काफी अच्छे लेखक रहे हैं. लेकिन हिंदी का व्यवहार बंद कर देने की वजह?
उन्हें भी किसी ऐसे ही काठ के उल्लू ने फरमा दिया था कि अगर वह हिंदी नहीं बोलते हैं तो वह सच्चे भारतीय नहीं हैं. अगले दिन से उन्होंने हिंदी छोड़ दी. नुकसान किसका हुआ?
मजे की बात यह है, जो खलती भी है, कि अहिंदीभाषियों को हिंदी की राह अपनाने का उपदेश देने वाले खुद धड़ल्ले से अंग्रेजी की राह पकड़ लेते हैं. यह प्रश्न बार-बार उठा है कि कितने हिंदीभाषियों ने अन्य भारतीय भाषाएं सीखी हैं?
एक और परेशानी यह भी रही है कि हिंदी आधुनिकता से विमुख रही है. साहित्य में आधुनिक विषय, आधुनिक प्रयोग और आधुनिक विचार अन्य भारतीय भाषाओं में काफी पनपे और फले-फूले, पर हिंदी में नहीं.
जब मैं आईआईटी बॉम्बे में आया और हिंदी परिषद का सक्रिय सदस्य रहा, तब मुझे इस विमुखता से कई बार दो-चार होना पड़ा. मूड इंडिगो आईआईटी बॉम्बे का प्रसिद्ध सांस्कृतिक कार्यक्रम हैं.
उसमें हम लोगों ने 70 के दशक में ही हिंदी कार्यक्रम करने का प्रयास किया- पर लीक से हटकर. जैसे अंग्रेजी के प्रसिद्ध कार्यक्रम की तर्ज पर हिंदी में ‘शब्द-वेध’ कार्यक्रम किया, जो सराहा भी गया.
जहां मराठी ‘शब्द-वेध’ दूरदर्शन पर गया और चला भी, हिंदी शब्द-वेध को दूरदर्शन के धुरीणो ने सिरे से नकार दिया- ‘ज्यादा ही आधुनिक’ करार देकर. यही हाल हिंदी में वर्ग पहेली यानी क्रॉसवर्ड का रहा.
विज्ञान कहानी या उपन्यासों पर जाएं, तो जहां मराठी में जयंत नारलीकर, बांग्ला में सत्यजीत रॉय और कन्नड़ में शिवराम कारंथ तक विज्ञान फंतासी लिखते थे, हिंदी में ऐसा कोई नाम नहीं टिका.
धर्मयुग के संपादक भारती जी से मेरी इसपर बाकायदा तकरार हुई. उन्होंने विज्ञान कहानियों को ‘जेबी जासूस’ कहकर नकारा था. हालांकि बाद में उन्होंने जयंत नारलीकर जी की विज्ञान कहानियां छपवाईं और मेरी भी एक कहानी को सराहा और जगह दी.
आईआईटी में ही कुछ प्राध्यापकों से तकनीकी विषयों पर हिंदी में लेखन की बात उठाई, तो मुझे सुनने को मिला कि ‘मैं हाईस्कूल तक हिंदी में डिबेट करता था, पर कॉलेज में आने के बाद… यू नो हाउ इट इज़ ?’
यह अपवाद नहीं था. बाद में भी कर्म जीवन में कई बार मैं कन्या भ्रूण हत्या और घटते हुए लिंग अनुपात पर बोलने के लिए भुवनेश्वर या बॉम्बे से निकलकर गया.
इलाहाबाद और दिल्ली तक में हिंदी पत्रकारों की कार्यशालाओं में इसलिए जाना पड़ता था कि इस ‘तकनीकी’ विषय पर हिंदी में अच्छे वक्ता नहीं मिलते हैं! तो क्या इसी सोच और क्षमता के सहारे हम हिंदी के प्रसार का हठ करेंगे?
कुछ पाठक हो सकता हो मन ही मन पूछे कि साहब आपने क्या तीर मारा? तो मैं बताना चाहूंगा कि मैं तो बीएससी फिजिक्स ऑनर्स के पर्चे तक हिंदी में लिखने की तैयारी कर चुका था- इसी भावना से कि हिंदी की यह सेवा राष्ट्र की सेवा हैं.
हमारे प्रोफेसर साहब को जब इसकी भनक लगी तो उन्होंने मुझे बुलाया, लताड़ा और समझाया कि कॉलेज को मुझसे ढेर सारी उम्मीदें हैं कि मैं विश्वविद्यालय में पहले तीन स्थानों में आऊं. मेरा भी कर्तव्य बनता हैं कि मैं ऑनर्स के पर्चे हिंदी में लिखकर उन उम्मीदों में पलीता न लगाऊं.
मुझे बात रखनी पड़ी. यह संयोग की बात हैं कि मैं वाकई विश्वविद्यालय में प्रथम क्रमांक पर आया. वापस अपने कर्म जीवन में आता हूं.
एक बार आयुध निर्माण कारखाने के चेन्नई के पास की एक इकाई में गया. वहां के मुखिया हिंदी भाषी थे. लंच के दौरान उन्होंने बड़े फख़्र से हमारी समिति को बताया कि मैंने ‘इन लोगों’ को हिंदी बोलना सिखाया. आसान नहीं था यह काम. बड़े अनिच्छुक हैं ये लोग वगैरह वगैरह.
मैंने बड़े भोलेपन से पूछा लिया, ‘आप तीन साल से यहां हैं, तो तमिल तो कामचलाऊ सीख ली होगी?’ मुझ पर करुणा भरी दृष्टि डालते हुए उन्होंने फरमाया, ‘यहां उसकी कोई ज़रूरत नहीं पड़ती सर, अंग्रेजी तो है ही!’
तब मुझे वह शेर याद आया कि ‘वो राह दिखाते हैं हमें हजरते रहबर, जिस राह पे उनको कभी जाते नहीं देखा.’ ऐसे कई और उदाहरण दे सकता हूं पर कहने का सार यही है कि इस मानसिकता और दंभ के सहारे हिंदी का प्रसार नहीं हो सकता.
हिंदी फिल्म जगत का उदाहरण प्रासंगिक है. उसने और हिंदी गानों ने हिंदी का जितना प्रचार-प्रसार किया, उसमें कहीं भी राजहठ, दंभ और अनावश्यक आक्रामकता नहीं थीं.
और हिंदी का प्रसार हुआ है और खूब हुआ, पर राजभाषा थोपने के रास्ते से नहीं लोक भाषा या संवाद की भाषा के रूप में.
हिंदी पखवाड़े की रवायत निभा लेने के बाद अब विचार करने की जरूरत है कि हिंदी अन्य भारतीय भाषाओं की सखी बनकर फैलना चाहती है या स्वामिनी बनने का राजहठ करना चाहती है.
प्रथम प्रकाशित: द वायर – हिंदी थोपने की अनावश्यक आक्रामकता ख़ुद उसके लिए नुक़सानदेह है
छवि सौजन्य: पिक्साबे