बादशाह को कमी किसी चीज की नहीं थी. निरंकुश सत्ता, अकूत खजाना, धराशायी विरोधी और दुनिया मे धाक.
पर लोभ किससे संवरण हो पाता है? कहते हैं ना – आदमी का पेट भर जाता है, मन नहीं भरता. उस दिन असावधानी में कुछ ऐसा ही हुआ.
बात बिल्कुल छोटी सी थी. इत्र की. विदेश से आया बेहेतरीन इत्र – महंगा भी. लगाते लगाते एक बूंद फर्श पर गिरी. उसकी अनदेखी भी की जा सकती थी. पर ना जाने क्यों, बादशाह ने उसे अपनी अंगुली से पोंछकर अपनी अचकन पर रगड लिया.
पर बुरा हो बीरबल की पैनी नजर का – वह बादशाह की इस हरकत पर पड ही गयी. और बीरबल मुस्करा बैठे.
झेंपना बादशाह की फितरत थी नही. पर बीरबल की मुस्कुराहट कहीं पर चुभ तो गयी.
कुछ करना तो बनता था. बादशाह ने अगले सप्ताह एक बडा सा आयोजन किया – इत्र त्यौहार का. सारे गणमान्यों को न्यौता था -क्या दरबारी, क्या राजदूत, विदेशी मेहमान, अखबारनवीस!
हर तरफ इत्र ही इत्र. अलग अलग रंग, अलग अलग खुशबू, अलग अलग इत्र दान. सबपर छिडका गया. फव्वारों में घोला गया. सब झूम उठे.
फिर बादशाह ने वह किया जो किसी ने सोचा नहीं था. एक बडे से हौज मे महंगा इत्र भरा गया और फिर सबके सामने उसे फूलों की क्यारियों में बहा दिया गया.
पहले तो सब स्तब्ध! फिर तालियों की गडगडाहट से सारा समां गूंज उठा. कहते हैं कि फूलों की वर्षा भी हुई. बादशाह की दरियादिली का सब ने लोहा माना.
फख़्र से बीरबल की ओर देखते हुए बादशाह ने पूछा – कहो बीरबल कैसी रही?
नम्रतापूर्वक बीरबल ने उत्तर दिया – “जहांपनाह, जो बूंद से गयी वह हौज से नहीं आती”.
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सनद रहे कि इस कहानी का प्रवासी मजदूरों से वापसी का किराया वसूलने से कोई संबंध नहीं है