कितनी बड़ी बात थी. शिवजी का धनुष्य बनना. डिजिटल ही सही – बना तो. बनाया था किसीने पिछले 70 सालों में? हाँ हाँ, शिव-धनुष्य 2.0 ऍप की ही बात हो रही है. कैसा धुआंधार प्रचार कर दिया उसका! मानो उस ऍप से ही भस्मासुर मर जाएगा. अब यह दीगर बात है कि असुर को कोई फर्क नही पड़ा – पर आप बीच में मत टोकिए यह सब पूछकर. हमने बता दिया सारे देश को की यह आपको तुरंत खबरदार कर देता है अगर भस्मासुर आस पास कहीं भी हो.
फिर एक फरमान जारी कर दिया- और ऍप को अनिवार्य कर दिया. इसके बिना न तो आप कहीं आ जा सकते हैं न उठ बैठ सकते है न अस्पताल मे घुस सकते हैं न परीक्षा केंद्र में. शिवधनुष्य उठाना बच्चों का खेल तो है नही. पर हमने उसे बडा आसान कर दिया डिजिटली. डाउनलोड करो और उठा लो. सेक्योरिटी वालों को सख्त निर्देश दिये – चेक करें कि आपके मोबाइल पर शिवधनुष्य ऍप है या नहीं.
ऍप बनानेवालों की तो बाछें ही खिल गयीं – अंधा मांगे एक आंख, साहब दे दें दो; वह भी रेबॅन गॉगल्स के साथ (हां भाई उसपर मेड इन इंडिया का लेबल लगा हुआ था – बीच में मत टोकिए). अब तो दोनों हाथों से डाटा बटोरो – डाटा याने लक्ष्मीजी का नया वाहन. बस बटोरो. ठिठको मत. बहुत दिया देनेवाले ने तुझको – आंचल ही न समाए तो क्या कीजे?
और यह सब जो समाज विरोधी, अरे वही लिबरल, तथाकथित बुद्धिजीवी वगैरह, ढकोसले बाज, जो प्रायवेसी, सुरक्षा जैसे फालतू मुद्दों को उठाकर विरोध कर रहे थे, सब की बोलती बंद कर दी. मत करो डाउनलोड, मत बैठो जहाज में. सही जगह ठोक दिया. चुपचाप डाउनलोड करके दिखाने लग गये “आप सुरक्षित हैं” का तमगा. सेक्योरिटी वाले भी मुस्कराये “बडे फडफड़ा रहे थे बच्चू. अब करो क्या करना है. हमारा ऍप हर जगह मौजूद है”.
हर कोई वाहवाही बटोरने में जुट गया. साहब की कृपादृष्टि आकर्षित करना जरूरी जो था. हर मेधावी छात्र दावा करने लगा कि ऍप उसने ही बनाया.
“मैंने बनाया ऍप सर, मैंने बनाया” मेधावी नंबर एक ने कहा. “यह झूठ बोल रहा है मास्टर साब” मेधावी नंबर दो कुलबुलाया “मैंने बनाया था – इसने नकल मारी है”. तीसरा इन पचडों में नहीं पड़ा. उसने सारे स्कूल मे इश्तिहार लगवा दिये कि ऍप दरअसल उसने बनाया था. शिक्षकों में होड़ लग गयी “मेरे क्लास के बच्चों ने बनाया सर”. हेडमास्टर गदगद. स्कूल का नाम रोशन.
और उन सबके पीछे बैठा हुआ वह डाटा चोर इत्मीनान से डाटा बटोर रहा था. डाटा याने लक्ष्मीजी का नया वाहन – लेटेस्ट वाहन. और भस्मासुर भी खुशी खुशी अपने शिकार बदस्तूर खाये जा रहा था शिव-धनुष्य ऍप से पूरी तरह बेपरवाह. सब कुछ चंगा ही चल रहा था.
पर बुरा हो उस खेलबिगाड़ू का. अरे वही मुआ, सूचना के अधिकार वाला. अराजकी कहीं का. इन लोगों को ना, देश का कुछ भी भला नहीं सुहाता. उसे इस ऍप में भी कुछ काला नजर आया. बस पूछ डाला सूचना के अधिकार के तहत कि शिवधनुष्य किसने बनाया.
बुरा हो उन कमिश्नर साहब का भी जिन्होंने आव देखा ना ताव. दनदनाते पहुँच गये तहकीकात करने कि शिवजी का धनुष्य किसने बनाया. अरे कुछ देवलोक का तो ख्याल किया होता. कुछ डिजिटल क्रान्ति का लिहाज़ रखा होता. पर पहुँच गये.
अब सारे सूचना अधिकारियों की क्लास लगी. “बोलो शिवजी का धनुष्य किसने बनाया?”. अब बनाने और वाहवाही लूटने में फर्क है. बनाया हमने थोड़ा ही था! वह तो ‘उपर’ से आया था. हम तो निमित्त मात्र थे. बस अपना नाम जोड़ भर दिया था. आदेश आखिर आदेश होता है. हाँ लग जरूर रहा था कि नेपथ्य मे कुछ गोलमाल है. पर “सानू की”? वैसे भी कोतवाल ही सैंया थे, तो डर काहे का था?
पर अब सबको सांप सूंघ गया था. अधिकारियों की पतलून ढीली.
“मैंने नहीं बनाया सर” अधिकारी नंबर एक हकलाया. “मैंने भी नहीं बनाया सर” डेस्क के नीचे दुबके अधिकारी नंबर दो ने सफाई दी. “मैंने तो बस अपनी कॉपी उधार दी थी उनको”
“और भाई आप? आपने तो इश्तिहार तक लगा दिये थे. वेबसाइट पर तो कॉलर खड़ी करके घूमते थे”
“मैं तो बस एडमिन था सर ” वह रूआंसा हो गया. “मुझे नहीं पता किसने बनाई. बस उपर से आ गयी सर”
“ऐसे ही उपर से आ गयी ” कमिश्नर झल्लाए. मास्टरजी ने समझाया “बच्चे हैं सर गलती हो जाती है. अब क्या फांसी दे दें? हमारी क्लास में किसी ने नहीं बनाया सर. विश्वास करें.” उनके चेहरे पर “इदं न मम” वाला वही विश्वामित्री भाव जो शकुंतला को देखकर आया होगा.
ढाक के तीन पात. हेडमास्टर साहब ने भी हाथ खड़े कर दिये “हमने नहीं बनाया सर विश्वास कीजिए. वह तो वैसे ही हमारे गले मढ़ …. आप तो जानते ही हैं सर, वह आदेश उपर से … मौखिक ही आते हैं सर. कोई रेकॉर्ड नही. इन बेचारों की भी कोई गलती नहीं.”
अजीब स्थिति है. शिवजी का धनुष्य ऍप बना भी है. वह हर फोन पर काबिज भी है. इस्तेमाल भी धडल्ले से हो रहा है. पर हर कोई मना कर रहा है कि मैंने भी नहीं बनाया. आर टी आई कार्यकर्ता पीछे पड़ा हुआ है. आयोग तारीख पर तारीख देने पर बाध्य है.
और देश? देश इस सबसे बेखबर……
आगे बढ़ रहा है ……..
छवि सौजन्य: पिक्साबे