(दुष्यंत जी से क्षमायाचना सहित)
मत कहो अतिथि ने, आमंत्रण को, किया मना है
यह तो पूरे तंत्र की आलोचना है
यह खबर देखी नहीं पर सुबह से
क्या करोगे, इस खबर को क्या देखना है?
बननी थी अखबार की जो हेडलाइन
हाशिये से इतर उसका छपना मना है
पक्ष औ' प्रतिपक्ष संसद में हैं रूठे
बात कुछ भी सेठ पर कहना मना है
नफरतें खौलाई वर्षों से नसों में
तब कहीं सत्ता पे कब्जा अब बना है
कर ली हमने घाट पर पूरी व्यवस्था
हर विरोधी को यहीं पर डूबना है
दोस्तों, हर मंच से है विकल्प गायब
हमने नेपथ्य से भी छीनी हर संभावना है
(पुनश्च: इस कविता का किसीके भी मुख्य अतिथी बनने से मना करने से कोई संबंध नहीं है😊)
छवि सौजन्य: पिक्साबे