Cover of 'Hans' , March 2022

ज्ञान चतुर्वेदी की नवीनतम व्यंग्य रचना ‘स्वांग’ दो बैठकों में ही पढ़ डाली. इससे पहले कि मैं इसे मार्मिक या अद्भुत जैसे विशेँषणों से नवाजूं, मन में स्वत: यह शब्द आये “ एक स्तब्ध कर देनेवाला व्यंग्य “

कोई 400 पन्नों का यह व्यंग्य, इंडिया से सटे भारत के एक बुंदेलखंड़ी गांव, ‘कोटरा’ का दस्तावेज है. शुरुआत से ही यह आपको हंसाता भी है और झकझोरता भी है. पर जैसे जैसे कथानक आगे बढ़ता है, यह हंसाता कम और झकझोरता ज्यादा है, और कथानक का अंत बस झकझोरकर रख देता है इस डरावने एहसास के साथ कि ऐसा कोटरा हमारे चारों तरफ़ मंडरा रहा है. या कहें तो हमें घेर भी चुका है और दबंगई के साथ इंडिया के दरवाजे पर भी दस्तक दे रहा है और घर में घुसकर मारने की चेतावनी भी.

मैने दस्तावेज शब्द का व्यवहार जानबूझकर किया है. बुंदेलखंड़ का कोटरा, राग दरबारी के शिवपालगंज की आधुनिक और सामयिक आवृत्ति है - विकास के विद्रूप चेहरे को उजागर करती हुई. यहां ‘समरथ ‘ पर कोई दोष नहीं है. पर जो सरल हैं, निरीह हैं, या जिनका थोड़ा विवेक बचा है, क्रिकेट का भाषा नें कहें तो सीधे बल्ले से खेलते हैं और कोटरा के आम विमर्श की भाषा में कहें तो ‘ चूतिये ‘ हैं, वह हर तरफ़ से न सिर्फ़ दोषी हैं, उसका खामियाजा भी भुगतते हैं.

ऐसे खामियाजा भुगतने वाले पात्र आपको कोटरा क्या सारे भारत में यत्र तत्र मिल जायेंगे. इनमें पगलाए, सठियाए स्वतंत्रता सेनानी गजानन बाबू हैं (कथानक जिनसे शुरू होकर जिनपर ख़त्म होता है), दबंग नेता ‘पंडिज्जी‘ के खेत की रखवाली करनेवाला नत्थू भी है जो मालिक के खेत में उगे मटर के दानों को बिना अनुमति न तोड़ने देता है न खुद गलती से तोड़कर चखता है. पाठक भी राजी हो रहे होंगे कि कोटरा के पैमाने पर वह ‘विशुद्ध‘ चूतिया है.

दबंगई और भ्रष्टाचार के, पर ‘सब कुछ ठीक है‘ का स्वांग रचनेवाले, इस दलदल में आपको और भी मुरझते कमल मिल जायेंगे. मसलन नन्हे मास्साब जो कालेज की लाईफ लाईन याने नकल के ख़िलाफ हैं, लड़कियों को छेड़ने के ख़िलाफ हैं – याने यथार्थ से कटे हुए. मसलन पंडिज्जी की खुद की बेटी जो पढ़ने नें तेज है (और यही उसकी खामी भी है) और नकल मुक्त वातावरण में जाकर कोटा में मेडिकल की तैयारी के सपने संजोती है (जा पाती है या नहीं यह रहस्य अंत तक कायम रहता है!) यह भी तो यथार्थ से कटी हुई धृष्टता है! तिसपर तुर्रा यह कि उसे अपनी मां का पिटना पसंद नहीं आता. बाप और बड़े भाई से तर्क भी करती है – जिसे उल्टा जबाब देना कहा जाता है.

इस कीचड़ में कुछ और मुरझाते कमल भी मिल जाएंगे – हाशिये पर बैठे हुए. जैसे चबूतरेवाले पेड़ के नीचे जमी गपलड़ाउ महफिल में बैठा वह बेवकूफ नौजवान जो पूछ बैठता है कि क्या अफसर सारे ही बेइमान होते हैं? या फिर वह जो खसरे की नकल हासिल करने के लिये सिर्फ तय सरकारी फी ही देता है और महज दस रूपये का ‘खर्चापानी‘ देने से मना करके कतार में अपना और सबका ‘टैम बरबाद‘ करता है. छोटे शहर का वह निरीह भी है जो कानूनी व्यवस्था पर विश्वास रखते हुए, गांव आकर अपनी कब्जाई गयी जमीन कोर्ट के जरिये वापस लेना चाहता है. उसका भोलापन सराहनीय है और उसका आशावाद बांझ!

पर कोटरा के दबंगों के पास ऐसे हर चूतियापे का इलाज है. गजानन बाबू से तो वह गम खा जाते हैं और उनपर तरस खाते हुए ठट्ठा भी करते रहते हैं. गजानन बाबू का बार बार जयहिंद कहना और महात्मा गांधी की जय करना एक सिरियस मनोरंजन बन जाता है. अंतत: वह दिल्ली विदा हो जाते हैं ऱाष्ट्रपती पद की उम्मीदवारी का पर्चा भरने के लिये ताकि वह ऱाष्ट्रपती बनकर देश में रामराज्य ला सकें – वह भी इन ‘ससुरे‘ नेताओं के कान पकड़कर!

जहांतक चबूतरे के नौजवान की बात है उसे तो उपहास से ही निपटा दिया जाता है जबकि निरूपाय होकर रिश्वत की शरण में गये हुए असहाय आशावादी को अपने ठगे जाने की नियति पर रोना पड़ता है. हां अपवाद के तौर पर एक नौजवान है जो खसरे की नकल पंद्रह रूपये ही देकर ने जाता है. ज्ञान ने फटे हुए आसमान में यह पैबंद जानबूझकर लगाया है. यह दीगर बात है कि बाकी लोग वह ‘उपरी’ दस रूपये देने की पेशकश कर चुके होते हैं.

पर नन्हे मास्साब की किस्मत उतनी अच्छी नहीं है – उसमे ठुकना लिखा है वह भी एक नहीं कई बार. उनके हर प्रतिरोध की काट पंडिज्जियों के पास है चाहे वह स्थानीय स्तर पर हो, जिला स्तर पर या ‘उपर’ याने लखनउ तक. नन्हे मास्साब का समर्थन करनेवाले टेढ़े शिक्षाधिकारी भी एक लडकी के मामले में सस्पेंड हो जाते हैं. “जो अफसर भौत कानून दिखाता है, वह भूल जाता है कि कानून पीछे से उसको भी दबोच सकता है“, पंडिज्जी का फिलासाफिकल होकर कहा गया यह वाक्य हर आदर्शवादी के लिये एक चेतावनी है कि वह अपनी औकात में रहे.

कहानी में कुछ ऐसे भी पात्र हैं जिनका इस सडांध से कोई लेना देना नहीं. अब गयासुद्दीन को ही लिजिये जिसका बीजू बकरा समभाव से हर धर्म और जात के ग्रामीणों की बकरियों को गाभिन करता रहता है. या फिर नत्थू का बेटा, जिसने गांव छोड़ ही दिया है और शहर में कमाने खाने के संघर्षरत है और यदा कदा की तरह बाप से मिलने चला आया है.

पर यह सडांध उन्हें भी नहीं बख्शती. गयासुद्दीन के मुसलसान बकरे द्वारा हिंदू बकरियों को गाभिन बनाना उन नेता को मंजूर नहीं जिनके शातिर कान चुनावों की आहट पा चुके हैं. उसी तरह, नत्थू के बेटे का अच्छे कपड़े पहनना, बडे आदमियों जैसी मुछें रखना भी उंची जातवालों को खल जाता है, जो दारोगाजी के लिये एक सुअवसर प्रदान करता है.

गयासुद्दीनको ठीक से समझा दिया जाता है कि अपनी सीमा में रहे और हिंदू बकरियों को पथभ्रष्ट न करे. नत्थू का बेटा डकैती के संदेह में गिरफ्तार होता है. वजह बड़ी साफ है “गरीब का गरीबी के मान्य बाने से अलग दिखना संदेह पैदा करता है“. मोटरसाइकिल चढ़ना, बडे आदमियों जैसी मूछें रखना और हाथ में चमकीला मोबाईल रखना ‘मान्य बाने‘ से बिल्कुल अलग है सो पुलिस उसे उठाकर ले जाती है. और एक बार पुलिस उठाकर ले जाए तो असहाय बाप के पास पंडिज्जी की पूरी सिफारिश के बावजूद, अपनी पूंजी, याने गाभिन बकरी, उसके बच्चे वगैरह को बेचने के अलावा और कोई चारा नहीं रहता है ताकि अपने (निर्दोष) बेटे को छुड़ा सके.

नत्थू का बेटा क्यों गिरफ्तार हुआ यह पूछना उतना ही बेवकूफी से भरा है जितना शरद जोशी के अलादाद का ‘ एक था गधा‘ में यह पूछना कि उसे फांसी क्यों दी जा रही है. बेटा छूट गया यही गनीमत है और इसके लिये नत्थू सारी सडांध का ऋणी है.

पर दबंगों की यह दुनियां भी अपने अपना विरोधाभासों, शह और मातों और आपसी रस्साकशी से भरी है. य़हां सवर्णों के नेता पंडिज्जी हैं तो उनकी आंखों में शूल से खटकते नेताजी फंछीलाल कहार भी हैं जो पिछड़ों की राजनिति करते हैं. इनके साथ हैं दलाल किस्म के बिस्मिलजी जो पत्रकारिता, समाज-सेवा और बिचौलियेपन का सुवर्णमध्य साधे रहते हैं. और हैं हर जगह मिलनेवाले दारोगाजी जिन्हे रहना हवा के साथ ही है और कोई बंधन भी नहीं है कि दिये के साथ दिखें. फिर चौहान साहब भी हैं जिनका बेटा एक ऐलानिया कत्ल करके अकड़ के साथ जेल जाता है और फिर ‘अदालत अदालत’ खेलकर इत्मिनान से छूट आता है. यही नहीं फिर एक जुलुस भी निकलता है जो उसी ‘कायर‘ के घर के बाहर रूककर नाच गाने और पटाखों से अपना शक्ति प्रदर्शन भी करता है, जिसके बेटे को ऐलानिया ठोंक दिया गया था. अब लड़की कुजात में शादी करने का दुस्साहस दिखाए तो और किया ही क्या जा सकता है? सारे गांव को इस दबंग पर गर्व है और उस कायर जाति पर हिकारत क्यों कि वह बदला नहीं लेती!

यही ‘तमंचा संस्कृति‘ पंडिज्जी के बेटे को भाती है. उसका अपने बाप से सदैव यही झगड़ा रहता है कि वह अनावश्यक कचहरी कचहरी क्यों खेलते रहते हैं जबकि तमंचा हर समस्या का समाधान है! बहन के मेडिकल में पढ़ने के विचार को भी वह दुस्साहस ही मानता है और उसे या उसे ‘बहकाने‘ वाले की ठुकाई को समाधान. इस दबंग पार्टी के भीतर के नरम दल बनाम गरम दल के संघर्ष को ज्ञान ने काफी सशक्त रूप से उभारा है.

कहानी का सबसे विचलित करनेवाला पहलू है इस उपरी परत की सहज क्रूरता और उसे उतनी ही सहजता से स्वीकार करता हुआ समाज. राग दरबारी के शिवपालगंज से स्वांग के कोटरा तक की यात्रा के दौरान यह क्रूरता और मुखर हो गयी है, बावजूद इसके की ज्ञान कहीं पर एक क्षीण सी लौ का उल्लेख करते हैं जहां सिद्धांतवादी नन्हे मास्साब को बेचारा की गाली देकर भी बिस्मिल जी को दूर जाते हुए नन्हे मास्साब को देखते हुए एक नामालूस सा डर भी महसूस होता है और वह सोचने लगते हैं कि “इन स्साले आदर्शवादी और सिद्धांतवादी लोगों में आखिर ऐसा होता क्या है जो खामखां भयभीत करता है?“

उपरी परत की यही क्रूरता जब शहरों और राजधानियों में प्रवेश करती हैं तो थोड़ी और चालाक बन जाती है. गजानन बाबू के दिल्ली मुहिम की परिणती यही दिखाती है. संसद भवन के सामने भी एक मखौल बने हुए गजानन बाबू समझ नहीं पाते हैं कि सांसदों को सामान्य नागरिकों से खतरा कैसा? वे यह भूल जाते हैं कि खतरा सामान्य नागरिकों से नहीं उनके जैसे प्रश्न पूछनेवाले नागरिकों से है. ऐसे नागरिकों और उनके प्रतिनिधियों के बीच अब खड़ी हो गयी है ‘व्यवस्था’ की एक मजबूत दीवार जिसका कानून से कोई लेना देना नहीं है. सो इस व्यवस्था के वर्दीधारी ‘रखवाले’ भी कानून को हाशिये पर रखते हैं और व्यवस्था को केद्र में. हां इन कंबख्त मानवाधिकार वालों, मिडियावालों से बचने के लिये कभी कभी नफासत से काम लेना पड़ता है खासकर सामने जब गजानन बाबू जैसा ढीठ, साहसी, बूढ़ा, मार खाने से न डरनेवाला स्वतंत्रता सेनानी वह भी ताम्रपत्रधारी खड़ा हो! उन्हें विनम्रता के साथ राष्ट्रपती पद की उम्मीदवारी का फार्म भरवाने के बहाने सादर जीप में बैठाकर भीड़ से दूर ले जाया जाता है, और जैसा कि हर प्रश्न पूछनेवाले नागरिक के साथ होता है – लाकअप में बंद कर दिया जाता है जहां से वह जयहिंद के नारे लगाते बैठें व्यवस्था को कोई खतरा पहुंचाए बिना.

स्वांग समसामयिक सामाजिक विद्रूप का स्तब्ध कर देनेवाला चित्रण है जिसकी जकड़न हम अपने चारों ओर महसूस रहे हैं. हां, कहने को तो उपन्यास के अंत में शहर लौट आया नत्थू का बेटा अपनी रिक्शा में बैठा बैठा, सपने में, अपनी लुटी हुई, लगभग खाली, गठरी के साथ साथ बीहड़ और बंदूक भी देखता है. वह अपने हाथों में नेजा भी देखता है जो दारोगा की छाती में धंसा हुआ भी है.

ऐसे पात्रों की खुशफहमियां उन्हें मुबारक. फिलहाल तो ज्ञान ने स्वांग नामका नेजा पाठकों की छाती में पूरा धंसा दिया है

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