आज एक और पेड़ धराशायी हो गया – अमरबेल के चंगुल की जकड़ में.
जोर तो लगाया था पेड़ ने – पर अमरबेल की पकड़ बहुत मजबूत थी इस बार. पहले जैसी नहीं जब अमरबेल को जरुरत थी पेड़ की – उपर उठने के लिये. अब तो अमरबेल उठ चुकी थी उपर और हावी भी हो गयी थी पेड़ पर. पेड़ को पता ही न चला कि कब अमरबेल उसे खोखला कर चुकी थी.
य़ह पहला पेड़ नहीं था. अमरबेल ऐसे कई पेड़ धराशायी कर चुकी थी. उसका यही नियम था. नया पेड़ खोजो, उससे लिपटो, चूसकर अंदर से खोखला करो – साम, दाम दंड या भेद से, और एक दिन धराशायी करो. तभी तो अमरबेल का जंगल पर कब्जा होगा.
हर पेड़ को खुशफ़हमी होती – उसके साथ ऐसा नहीं होगा. पर अमरबेल किसी को नहीं छोड़ती थी. इस पेड़ के साथ भी ऐसा ही हुआ. हैरान नजरों से वह अमरबेल को ताकता रहा.
अमरबेल मुस्कुराकर आगे बढ़ गयी – अगले पेड़ की तलाश में. उससे लिपटकर, उसे अंदर से खोखला कर, उसपर हावी होकर उसे अंततः धराशायी करने. एक ही तो ध्येय था अमरबेल का – एक जंगल एक अमरबेल.
(इस कहानी का किसी भी राजनैतिक घटनाक्रम से कोई संबंध नहीं है)
छवि सौजन्य: माइक्रोसॉफ्ट कोपायलट